भारत वर्ष ऋषि-मुनियों की यह देवभूमि अतीत में प्रकाश स्तम्भ की तरह से पूरे विश्व को अपनी देव संस्कृति से आलोकित करती रही है। इसके प्रमाण आज भी विश्व के अनेक देशों में उपलब्ध है। महात्मा बुद्ध के धर्मचक्र प्रवर्तन तक यह सांस्कृतिक आलोक दिग-दिगंत में प्रकाशमान होता रहा, किन्तु कालान्तर में विदेशी पराधीनता के कारण हमारी यह दिव्य संस्कृति हार्षोंन्मुख होने लगी।
भारत को जगद्गुरु होने का सम्मान, सांस्कृतिक सूत्रों को राष्ट्रीय जीवन में अपनाने से ही प्राप्त हुआ था। ऋषि आत्माओं एवं देव सत्ताओं ने अथक परिश्रम के उपरान्त सनातन मूल्यों को राष्ट्र में प्रतिस्थापित किया था, ये मूल्य आज भी भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं, जो अंतरंग को परिष्कृत कर प्रसुप्त पड़ी अनन्त संभावनाओं को जाग्रत कर विराट तक पहुँचाते हैं।
किसी भी देश की सभ्यता अधिकतर उसमें अंतर्निहित सांस्कृतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिकता पर आधारित होती है। यह समग्र जीवनशैली का पोषण करती है और संस्कृति को आकार देती है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार किसी देश की संस्कृति लोगों के जीवन के तरीके, रीति-रिवाजों, विश्वासों, दृष्टिकोण और सामाजिक व्यवस्था को दर्शाती है। इसमें विभिन्न कलाएँ, साहित्य, संगीत आदि भी शामिल होते हैं। भारत को दुनिया की सबसे विकसित संस्कृति होने का श्रेय प्राप्त है। सभी देशों के महापुरुषों ने इसकी प्राचीनता एवं भव्यता की प्रशंसा की हैं। इस संस्कृति में मानव जाति को सम्पूर्ण सृष्टि का अभिन्न अंग माना गया है। प्रकृति की प्रत्येक इकाई का, चाहे वह जन्मजात हो, सजीव हो या निर्जीव, शोषण से मुक्त संतुलित विकास ही इस देव संस्कृति की मूल विशेषता है।
वैज्ञानिकता एवं आध्यात्मिकता के आधार, दार्शनिक पृष्ठभूमि और अद्वितीय महत्व के कारण भारतीय संस्कृति इस भौतिकवादी दुनिया में बौद्धिक जनसमूह को सबसे अधिक आकर्षित करती है। परंतु ईश्वर के प्रति हमारी घटती आस्था, घटते नैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्य, अमानवीय व्यवहार, बढ़ती स्वार्थपरता, बुद्धि का ह्रास आदि इस गौरवशाली संस्कृति को भारी क्षति पहुँचा रहे हैं। इस बुराईयों के आक्रमण से बचाने के लिए सर्वांगीण प्रयासों की आवश्यकता है। इस दिशा में युगऋषि द्वारा चलायी गयी युग निर्माण योजना के अन्र्तगत भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा एक सार्थक एवं क्रान्तिकारी कदम है। आचार्य जी का निश्चित मत था कि भौतिकवाद के इस युग में व्यक्तित्व का विकास आवश्यक है।
परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने नई पीढ़ी को सही दिशा देने के लिए शिक्षा और विद्या के सार्थक समन्वय को अनिवार्य माना और इसे व्यवहारिक धरातल पर लाने के लिए अभियान चलाया है। मानवीय मूल्यों के विस्तार हेतु खड़ा किया गया विचार क्रान्ति अभियान वस्तुत: भारतीय संस्कृति के शिक्षा एवं विद्या विस्तार का ही अभियान है।
हमारे छात्र-छात्राएँ जो आने वाले पीढ़ी का भविष्य है, इन्हें पाश्चात्य संस्कृति रूपी असुरता के चंगुल से निकालकर देव संस्कृति रूपी राजपथ पर लाना और आगे चलने के लिए प्रेरित करना ही हमारा अभीष्ट है। भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा इसी का आधार है। यदि इस परीक्षा के माध्यम से गाँवों एवं शहरों में संचालित विद्यालयों, छात्र-छात्राओं तथा अध्यापकों को सांस्कृतिक सूत्रों से जोड़ा जा सके, तो युग परिवर्तन का आधार बनते तथा इसे साकार होते देर नहीं लगेगी।
‘अध्यापक हैं युग निर्माता, छात्र राष्ट्र के भाग्य विधाता’ इस नारे के अनुरूप शिक्षकों ने यदि मोर्चा सम्भाला तो इक्कीसवीं सदी का भारत अपने खोए हुये गौरव-गरिमा को पुन: प्राप्त करते हुए नवीन भारत श्रेष्ठ भारत की ओर अग्रसर होगा। छात्र-छात्राओं में नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए अखिल विश्व गायत्री परिवार उन्हें भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा के माध्यम से नया चिन्तन दे रहा है। परीक्षा के माध्यम से छात्र-छात्राओं के जीवन में उत्कृष्टता लाने के लिए विद्यालयों में संस्कृति मण्डलों का गठन भी किया जा रहा है।
आशा है कि इस परीक्षा के माध्यम से अनगढ़ता, सुघढ़ता में बदलेगी तथा छात्र-छात्राओं में अपनी संस्कृति के प्रति जागरूकता भी पैदा होगी। व्यक्ति, परिवार एवं समाज में सांस्कृतिक मूल्यों की पुनस्र्थापना से राष्ट्र सुदृढ़ एवं गौरवान्वित होगा। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना जीवन में चरितार्थ होगी और युग निर्माण योजना सफल होगी। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण का उद्देश्य भी साकार होगा।